Monday, September 13

अथक . . .




ये पत्थर अगर टूट सकें



तो फिर झरना फूट पड़ेगा



और बहने लगेगा जीवन



बस तब तक प्रयास की



और हिम्मत की है ज़रुरत,



बस थोड़ा मुश्किल है ये दौर



और कुछ कठिन हैं राहें



मगर ये कीमत कुछ ज्यादा नहीं



उसके लिए, जो पाना है,



माना कि पहरे पत्थरों के मज़बूत बहुत हैं



मगर इतनी हिफाजत तो होनी ही चाहिए

जीवन पीयूष के लिये ,



नहीं तो कैसे बच पायेगा ये उनके खातिर


जो इसकी क़द्र जानते हैं,



और फिर यकीन हैं जिन्हें



अपनी प्यास की सच्चाई पर



वो फिर पत्थरों के होने से



नहीं हैं निराश.


.

Thursday, June 3

The sacred, birthing from with in


Second drops in another second,

Altogether they sink in minute,

And minutes in hours,

Hours sucked by day,

And clock surrenders it's life to calender with each day,

Then all month become a prey for year,

And years like a tiny drops of rain,

Drown in river of time,

River that's running madly in passion,

To embrace the oceanic abyss of infinite continuum,

And then all loud noise being absorbed by,

Unfathomable silence of union,

With that moment of being merged in moment of timelessness,

Myth of clock dies,

And "First" unveils itself, that is forever there,

But being missed always by clock,

For the clock always runs with "second"

The "First" that is moment of eternity beyond "second",

That neither can be named "First" nor "Second",

The nameless whole forever rests where,

Life encircles with death,

With no more life, no more death,

It's the moment of birthing from with in of the sacred,

Beyond beginning and end,

When one becomes one with that is,

Beyond life and death........

परछाइयाँ





ये शाम-ए-गम के साए

और आरजुओं की तन्हा राहें

जिन्दगी को काश मिलती

तेरी पलकों की पनाहें



निगाहों में तेरे ख्वाब

ख़्वाबों में तेरी निगाहें

निगाहों की आहों में हैं

शायद निगाहों की ही खताएं



कभी अश्कों में ढले ख्वाब

कभी ख़्वाबों की वो बेबाक चाहें

जिस राह गुजरे थे तेरे कदम कभी

वो राह चूमती हैं

अब तक ये निगाहें



तुम्हें शायद अपनी मंजिल मिल गयी हो

पर मेरे कदम फिर उठ नहीं पाए

कदमों को लगा , यही हैं मंजिल



हाँ, मेरी मंजिल हों शायद , तुम्हारी यादों के साए.....



कभी हवाएं बन के दूर ले जाएं

कभी पंछी बन के थके से लौट आयें

कभी दर्द बन के आँखों से बह जाएँ

कभी खुशबू बन के मन को महकाएं



हाँ, तुम्हारी यादों के साए.....



कभी फूल, जैसे, शाम को अलसाए

कभी चेहरे हो जैसे खुद को छिपाए


और फिर कभी


रंगों को खोलते

और अपनी खुशबू को पहनते

सुबहों की ओस में जैसे

ताज़ा गुलाब हो नहाए


हाँ, तुम्हारी यादों के साए.....

Sunday, February 14

एक समंदर की दास्ताँ

समंदर सी गहरी आँखों में मछलियों जैसे तैरते सपनों के साथ मेरा मन , न जाने कितनी ही देर तक अठखेलियाँ करता रहा .

फिर एक मछुवार आया. उसने उन आँखों पे जाल फेंका और तड़पते हुए सपनों को अपने कंधों पर डाल चला गया .

आँखों का समंदर अभी भी उतना ही गहरा था या शायद आंसुओं से और भी गहरा हो गया था , मगर बिना जिन्दगी के , बस अपनी वीरानी में डूबा हुआ . उसके ख़्वाबों की ताबीर अब मछुवारे की भूख मिटाने की शक्ल में हो रही थी .

" क्या हर समंदर के साथ यही होता है ? क्या ख्वाब कभी भी अपनी सी शक्ल इख्तियार नहीं करते ? क्या वे हमेशा किसी मछुवारे की भूख मिटाने के ही काम आते हैं ?"


फिर किसी दिन, देर तक, उन आँखों के समंदर को छुप के देखता हुआ, मै बस यही सोचता रहा .

कुछ तो कहो

कहो

....कुछ तो कहो

...........मेरे मीत

.............कि मेरे ये एकाकीपन की दीवार टूटे

...............और अँधेरे ह्रदय में कोई रौशनी की किरण फूटे

कुछ दो परस ऐसा

....कि मन पे पड़े पत्थर पिघलें

......और तप्त वसुधा के से ये प्राण फिर से सरसें

सुनाओ वह संगीत

....कि सोये इस अंतर्मन में कोई वीणा जागे

.......और कोई जीवन सुमन मेरी फुलवारी में नाचे

सुनो तो मेरी आवाज़

.....जो सागर की तलहटियों में बैठकर

............मैंने आकाश के पार तक दी हे

.................कि शायद तुम इसे सुन सको

.......................कि तुम इसे लौटा सको